हरीश कंडवाल मनखी की कलम से… कमबख्त कम्बल ने रात भर सोने नही दिया..
हरीश कंडवाल मनखी की कलम से
कमबख्त कम्बल
कमबख्त कम्बल ने रात भर सोने नही दिया, मैंने पूछा कि भाई परेशान क्यो हो, मुझे भी सोने दो। कम्बल ने कहा कि बस गर्मी क्या आ गयी तुम मुझे भूल ही गए हो। मैंने कहा नही दोस्त तुमको कैसे भूल सकता हूँ, तुम जानते हो कि आजकल गर्मी है और बरसात भी, इसलिये तुमको सुरक्षित रखा है, बरसात में तुम पर सिलकाण आ सकती है, तुमको बरसात में धूप भी नही दिखा सकता हूँ, इसलिये तुम अभी बक्से में आराम करो। सर्दियों में तुम ही तो हमसफ़र से भी ज्यादा खास हो जाते हो। अभी सोने दो, कल बात करते हैं।
कम्बल उदास हो गया, मुझसे उसकी उदासी नही देखी गयी तब मैंने उसे निकालकर तकिया हटाकर सिर के नीचे सिरवाने में रख दिया। कम्बल सिसक रहा था, मैंने कहा भाई अब सिसक क्यो रहे हो। कम्बल ने कहा भाई देखो कोई मेरी दिल की सुनता नहीं है, मेरी पीड़ा के बारे में कभी किसी ने जाना ही नहीं। मैंने गर्दन उठाकर कम्बल को सहलाते हुए कहा.. भाई तुम तो बड़े नसीब वाले हो यार। देखो तुम अमीर से लेकर गरीब के काम आते हो, लोग तुमको दान में देकर पुण्य कमाते हैं, तुमको उपयोग में लाकर जनप्रतिनिधि चुनाव जीतते हैं। तुम पूस की रात के हल्कू और जबरा का सहारा हो, तुम काली कमली वालो की आधार शीला हो। शनिदान में काम आते हो, ठंड बचाते हो, साधु सन्यासियों के अंग वस्त्र और उनके कंधों की शोभा हो।
कम्बल ने कहा.. सही कह रहे हो मनखी, दूर के ढोल सुहाने होते हैं, लेकिन कभी मेरी पीड़ा को समझना। मैं कभी गरीब का सहारा जरूर था लेकिन, अब मैं गरीब का सहारा नही बल्कि दान देने के नाम पर एक वस्तु बनकर रह गया हूँ, राजनीति का हथियार बन गया हूँ। दुकान वाला ग्राहक से पहले ही पूछता है घर के लिये चाहिये या दान देने के लिये। तब मेरी आत्मा मुझे कचोटती है कि मैं दान के नाम पर मेरा मोलभाव हो रहा है। जब दर्जनों माननीय किसी अस्पताल में जाकर एक रोगी को मुझे भेंट करते हुए सब हाथ लगाकर फ़ोटो खिंचवाकर दान दाता बनते हैं, उस समय मुझे अपने कम्बल होने और उस रोगी पर तरस आता है।।
मैं पहले गाँव मे बरसात में किसानों का एक मुख्य अंग था, मैं गोठ में रहकर किसानों को ठंड व बरसात में बचाता था, खेतो में किसानों के साथ रहकर कपकपाती ठंड से ठिठुरन से उनके शरीर को बचाता था। लेकिन, अब तो किसान भी नही रह गए और न ही गोठ में रहने वाले गुठलु। अब तो मेरे देश में वो ज्ञानी साधु संत भी नही रह गए हैं जिनकी तन की शोभा बनकर मैं खुद को धन्य समझता था। अब तो ढोंगियों का वसन बन गया हूँ। अब तो मेरी स्थिति बदतर हो गयी है, दो महीने के लिये बाहर निकलता हूँ, उसके बाद मैं कभी रजाई के ऊपर तो कभी गद्दे में बिछाया जाता हूँ। उसके बाद मुझे एक कोने में बंद कमरे में दीवान बॉक्स में बंद कर दिया जाता है, और चुनाव आते ही मतदाताओ में बांट दिया जाता है।
दुःख तब होता है जब मेरा दान और बॉटने के नाम पर खरीद फरोक्त होती है, चलो खरीद फरोक्त से भी दुःखी नही हुआ, दुःख तब होता है जब लोग मेरा उपयोग लोक लुभावना और लोकतंत्र के चुनावी समर में उपयोग करते हैं, बदनाम मैं होता हूँ। कई जगह तो मेरे को गरीबो को दिया भी नही जाता है, बल्कि चुनिंदे खास लोगो को बांटा जाता है जो मुझे कभी उपयोग मे तक नही लाते हैं। मौका परस्ती के लिये मुझे एक कोने में छिपा दिया जाता है, उसके बाद वक्त आने पर मुझे बाहर निकाला जाता है, कई स्वार्थी मेरे नाम पर अपनी राजनीति की रोटी सेककर मुझे मुद्दा बना देते है। अब तो लोग मुझे बॉटने वाली चीज के नाम से जानते हैं।
मित्र दुःख तब होता है जब किसी जरूरत मंद को मेरी जरूरत होती है , जब कोई असहाय वास्तविक गरीब सड़क किनारे अलाव जलाकर मेरे चीथड़े उड़े होने के बाद भी मुझे अपने से चिपकाकर रखते है, अपना बदन ढकने की नाकाम कोशिश करते हैं.. मैं उनकी ठंड नही बचा सकता हूँ और नया भी नही बन पाता हूँ, तब यदि मैं कही किसी गोदाम में नए रूप में रहता हूँ तो मुझे खुद पर घिन आती है कि मैं क्यो उस जरूरत मंद का काम नही आ रहा हूँ। उस वक्त मैं सोचता हूँ कि मुझे इस वक्त कोई सच्चा दानी मिल जाता तो मेरा भाग्य ही बदल जाता, लेकिन मैं अभागा तो केवल राजनिति चमकाने लोगो की झूठी ख्याति बढ़ाने के लिये काम आता हूँ। मनखी मेरे मित्र मैंने अपनी पीड़ा कहते कहते तुम्हारी नींद भी खराब कर दी है।
कम्बल की सिसकी निकल रही थी और मैं उसे निस्तब्ध होकर देख रहा था, वास्तव में कम्बल की पीड़ा कम्बल ही जाने या बॉटने वाले दानी ही माने, उसके बाद मैंने कम्बल को अपने सीने पर लगाकर साथ मे सुलाया, तब जाकर कम्बल को अहसास हुआ कि आज भी मध्यम वर्गीय गरीब लोगों के लिये वह जरूरत की वस्तु है।
©®@ हरीश कंडवाल मनखी की कलम से।