मायावती अब ब्राह्मणों की शरण में, बसपा ने तैयार किया रोड मैप
दलितों के बड़े वोट बैंक पर भाजपा ने कब्जा कर लिया है। -बसपा ने इसीलिए अब दोबारा सोशल इंजीनियरिंग का लिया सहारा ताकि हिंदुओं के तीर्थ स्थान अयोध्या में चुनावी राजनैतिक फसल बोई जा सके।
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती को इस बात की भनक लग चुकी है कि आखिर उनके पैरों के नीचे राजनैतिक जमीन खिसक कैसे रही है। पैरों के नीचे की जमीन ब्राह्मणों की वजह से नहीं बल्कि दलितों के उस बड़े वर्ग के शिफ्ट होने से खिसक रही है, जिस पर मोदी ने धीरे-धीरे ही सही, लेकिन अपना जाल बिछाकर गैर जाटव दलितों को अपने खेमे में शामिल करना शुरू कर दिया है। ऐसे में अब मायावती के पास तुरुप की चाल के तौर पर सोशल इंजीनियरिंग का ही दांव बचता है। इसीलिए बसपा ने ब्राह्मणों से अपनी पार्टी में जुड़ने की पेशकश की है। यही वजह है कि हिंदुओं के बड़े तीर्थ स्थल अयोध्या से ब्राह्मण सम्मेलनों की शुरुआत करने की बात कही है।
दरअसल, बहुजन समाज पार्टी के अपने बड़े वोट बैंक में लगती हुई सेंध को देखकर ब्राह्मणों को साधने की योजना बनाई है। राजनीतिक विश्लेषण एसएन कोहली कहते हैं भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रणनीति बनाते हुए कैबिनेट विस्तार में नरेंद्र मोदी ने गैर जाटव दलितों को बड़ा स्थान दिया। मोदी सरकार की और भाजपा की कोशिश है कि उत्तर प्रदेश में बसपा के कोर वोट बैंक दलितों को अपने खेमे में शामिल किया जाए। यही वजह रही कि दलितों में भी गैर जाटव को किनारे कर दिया गया और अन्य लोगों को पार्टी में न सिर्फ बड़ी जिम्मेदारियां दी गई बल्कि मंत्री भी बनाया गया।
2012 में बसपा का फार्मूला हुआ फेल
बहुजन समाज पार्टी ने 2007 में पहली बार सोशल इंजीनियरिंग का ताना-बाना बुना था। ब्राह्मणों को जोड़ने का यह पूरा ताना-बाना तैयार किया था सतीश चंद्र मिश्रा ने। नतीजा यह हुआ कि वर्ष 2007 में बहुजन समाज पार्टी ने बंपर जीत हासिल की, लेकिन वर्ष 2012 में बसपा का यह फार्मूला ना सिर्फ फेल हुआ बल्कि उसको सत्ता से भी बाहर कर दिया। 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद 2014 में हुए लोकसभा के चुनाव में तो बसपा को ऐसी मुंह की खानी पड़ी कि शायद ही उसने कभी सोचा हो।
गठबंधन कर बहुजन समाज पार्टी ने खेला था दांव
कभी सत्ता के शीर्ष पर बैठी बहुजन समाज पार्टी का 2014 लोकसभा चुनाव में खाता तक नहीं खुला था। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, बस इसके साथ ही बहुजन समाज पार्टी का उतार शुरू हो गया। वर्ष 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को कोई खास सफलता हाथ नहीं लगी। हालांकि, यह बात अलग है कि 2019 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर बहुजन समाज पार्टी ने बहुत बड़ा दांव खेला। नतीजा हुआ कि बसपा को 2014 में 0 सीट के मुकाबले 10 सीटें मिली। हालांकि, उसके बाद बसपा और समाजवादी पार्टी का बिखराव हो गया। इस बिखराव की बड़ी वजह यही रही कि दोनों पार्टियों के वोट बैंक आपस में पूरी तरीके से ट्रांसफर ही नहीं हो सके।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है इन दोनों पार्टियों की आपसी लड़ाई और बसपा के गिरते हुए ग्राफ का पूरा फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिलने लगा। भारतीय जनता पार्टी ने बसपा के गिरते ग्राफ को कैश कराने के लिए ना सिर्फ दलितों में अपनी पैठ बनानी शुरू की बल्कि उसके और दूसरे को वोट बैंक में सेंध भी लगानी शुरू कर दी। इसके लिए ना सिर्फ राज्य सरकार बल्कि केंद्र सरकार ने अपनी बड़ी बड़ी योजनाओं में दलितों को बड़ी भूमिकाओं में रखना शुरू कर दिया।