नीरज नैथानी… गांव में कोई भी ऐसा न था जो इस उत्साह में शामिल न होता हो…
नीरज नैथानी
रुड़की, उत्तराखंड-
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पुराने जमाने मे पर्वतीय गांव में शादी
पुराने जमाने मे पर्वतीय गांवों में शादी का निराला ही अंदाज होता था। किसी परिवार में शादी है तो पूरा गांव उसमें सहभागिता करता था। शादी का दिन बार तय होते ही तैयारियां शुरु हो जाती थीं। आंगन में युवतियों व लड़कियों के छोटे-छोटे समूह बने अनेक प्रकार के काम कर रहे होते थे। सामूहिक रूप से चौक के उरख्याले (ओखली) में गंजाळे (मूसल) से कुटाई हो रही है, हाथ से घुमाकर चलाने वाली पत्थर चक्की में दाल पिसाई हो रही है। सूप व छलनी से छनाई हो रही है, घर व आस-पास सफाई की जा रही है, घराट में जाकर आटा पिसाई हो रही है, लकड़ी काट कर इकठ्ठा की जा रही है। जंगल से माळू के पत्ते तोड़कर लाए जाते थे, फिर बरामदे में बैठकर पत्तल व दोने बनाए जाते थे।
बाजार से रंगीन कागज मंगाकर लड़कों को दिया गया है वे तिकोनी व आयताकर झण्डियां काट रहे हैं। आटे की लेई बनायी जाती थी फिर दो किनारों पर सुतली बांधकर उनमें झण्डियां चिपकाने का काम किया जाता था। उड़द की दली दाल को भिगोकर सिलबट्टों में महीन पीसा जाता था। दाल के पकौड़ों की खुशबू वातावरण में तैरती रहती थी। बारात आने वाले दिन दो बल्लियों को गाढ़कर फूल पत्तो से तोरण द्वार बनाया जाता। पुरानी धोतियों, तिरपाल व चादर तानकर शामियाने का रूप दिया जाता। चौक की गोबर मिट्टी से लिपाई होती। पूरा गांव उत्साह व उमंग में डूबा नजर आता था यानि कि शादी तो एक घर में होने वाली होती थी, लेकिन पूरा गांव खुशी में तैरता नजर आता था।
औझी, दास, ढोल-दमाऊ तैयार करते थे, नौबत बजती थी। यह सभी क्रियाएं नितांत नैसर्गिक व मौलिक होती थीं। संपूर्ण समारोह में कृत्रिमता का कोई स्थान नहीं था। चौक के किनारे से लगे खेत पर पुरुष वर्ग पत्थर रखकर अस्थायी चूल्हे तैयार करते थे। एक कोने में सब्जी काटी जा रही है, बड़ी आकार की परातों में आटा गूंथा जा रहा है। बड़े-बड़े डेग, भगोनों व कढ़ाहों में खाना मिल कर तैयार किया जा रहा है। पेट्रोमेक्स साफ की जा रही हैं, उनका मेंटल बदला जा रहा है, तेल भरा जा रहा है। लैम्प व लालटेन साफ करके तैयार रखे जा रहे हैं। उस समय कृत्रिम सौंदर्य प्रसाधन वाले ब्यूटी पार्लर का चलन न था। वधू को मेहंदी, काजल, टीका, चूड़ी, मांग, सिंदूर, आभूषण से गांव की सहेलियां व सयानी औरते प्राकृतिक रूप से सजाती थीं।
गांव में कोई भी ऐसा न था जो इस उत्साह में शामिल न होता हो।
रात ढलने से पहले ही धार में मुसक बाजा (बैगपाइपर ) की शहनाई गूंजने लगती तो मालूम हो जाता कि बारात आ पंहुची है। बारात के आने से पहले वर पक्ष के पंडित व मामा जी शाह पट्टा व घी की कमोळि लेकर आ गए हैं। बारात आने पर महिलाएं लोकजीवन के मांगल गीत समवेत स्वरों में गाती थीं ।बारातियों को चुटीली गालियां देकर हंसी ठठ्ठा किया जाता था। खूब हंसी-मजाक होता था, एक-दूसरे को चिढ़ाना, परेशान करना, तंग करना, ताने सुनाना जैसी हरकतों के माध्यम से मौलिक मनोरंजन किया जाता था। उस समय बुफे सिस्टम नहीं था। बारातियों को पंगत में बिठाकर खाना खिलाया जाता था। बरतनों की जगह माळू के पत्तलों व दोनों में खाना परोसा जाता था।
खाना बनाने वाले रसोइए जिन्हें सरोले कहा जाता था जूते चप्पल पहनकर खाना नहीं बनाते थे। साथ ही बांटने वाले भी नंगे पैर रहकर खाना खिलाते थे।अगर पंगत में बैठे एक आदमी ने अभी पूरा खाना नहीं खाया है तो और खा चुके भी पंगत से उठ नहीं सकते थे। आतिथ्य का यह उच्च भाव व सामूहिक भोज का यह मौलिक दृश्य अब आधुनिक समाज में दुर्लभ होता जा रहा है। मेहमानों बारातियों के लिए गांव के सारे घरों में रहने की व्यवस्था होती थी।
अगले दिन दुल्हन विदाई की बेला का अत्यंत मार्मिक दृश्य हुआ करता था। सारा गांव आंख में आंसू भर कर लड़की की विदाई करता था। विदा ले रही वधू दहाड़ मार-मार कर रो रही होती थी। उसकी सहेलियां अश्रुपूर्ण नेत्रों से सिसक सिसक कर विदा करतीं थीं।
पिता सजल नेत्रों से भावुक होकर पुत्री को ससुराल के लिए विदा करते। मां का तो रो-रो कर बुरा हाल हो जाया करता था। आज तो बिटिया पहले ही कह देती है कि मैं बिदाई के समय आंसू निकाल कर अपना महंगा ब्यूटि पार्लर से किया गया मेकअप खराब नहीं करने वाली। और सुनो ममा आप भी फालतू का आर्टीफीशिअल रोने धोने का सीन मत करना। मुझे ये सब ड्रामेबाजी पसंद नहीं। एक बिटिया जिसको मां-बाप ने जन्म दिया होता बचपन से पाल पोस कर बड़ा किया होता, उस कलेजे के टुकड़े को एकदम से दूसरे घर के लिए विदा कर देना सरल न था। हृदय पर पत्थर रखकर उसे भावुक वातावरण में विदा किया जाता।
यह अत्यंत हृदय विदारक व मार्मिक दृश्य होता था जो पूर्णत: स्वाभाविक होता था। सखियां लिपट-लिपट कर रोतीं, विदा ले रही कन्या लौट-लौट कर मां के गले आ लगती, अब आजकल की मार्डन लड़कियों को वेडिंग प्वाइंट पर ये सब करना ड्रामा करना लगता है। आजकल गांवों से हुए पलायन के कारण शादी बारात के मौके पर काम करने के लिए आदमियों का मिलना मुश्किल हो गया है। और जो गांव में हैं भी वे काम नहीं करना चाहते तथा जिनके यहां शादी है वे भी फालतू में किसी का एहसान नहीं लेना चाहते। अब तो पैसा फेकों तमाशा देखो स्टाइल में सब रेडीमेड काम हो रहा है। शहरों कसबों से हलवाई आ रहे हैं। लिहाजा टैंट वालों ने भी गावों में सेंध लगा दी है।
आधुनिक शैली ने सामूहिकता की भावना पर करारी चोट की है। हम के स्थान पर मैं व मेरा का भाव सर्वोपरि हो गया है। भावनाओं,भावुकता व संवेदनाओं का विलोपन हो गया है। औपचारिकता,दिखावा, कृत्रिमता ने नैसर्गिक रूप से होने वाली सामूहिक सहभागिताओं पर आघात कर प्रेम, अपनत्व से भरे रिश्तों की गर्मी को खत्म कर दिया है। लेकिन, अतीत के झरोखों में झांकने पर ग्रामीण विवाहोत्सव में होने वाले आंचलिक संस्कृति व समृद्ध परम्पराओं के दृश्य आज भी जीवंत होकर सुखद एहसास कराते हैं।