Wednesday, February 5News That Matters

Tag: भगवत चिंतन

डमरू मतलब आनंद और त्रिशूल मतलब वेदना दोनों एक-दूसरे के विपरीत

डमरू मतलब आनंद और त्रिशूल मतलब वेदना दोनों एक-दूसरे के विपरीत

आध्यात्मिक
भगवद चिन्तन... श्रावण मास शिव तत्व भगवान शिव का स्वरूप देखने में बड़ा ही प्रतीकात्मक और सन्देशप्रद है। हाथों में त्रिशूल यानी तीनों ताप दैहिक, दैविक और भौतिक को धारण किए हैं। लेकिन, यह क्या हाथों में त्रिशूल और त्रिशूल पर भी डमरू? डमरू मतलब आनंद और त्रिशूल मतलब वेदना दोनों एक-दूसरे के विपरीत। जीवन ऐसा ही है। यहाँ वेदना तो है ही लेकिन, आनंद भी कम नहीं। आज आदमी अपनी वेदनाओं से ही इतना ग्रस्त रहता है कि आनंद उसके लिए मात्र एक काल्पनिक वस्तु बनकर रह गया है। दुखों से ग्रस्त होना यह अपने हाथों में नहीं लेकिन, दुखों से त्रस्त होना यह अवश्य अपने हाथों में है। भगवान शिव के हाथों में त्रिशूल और उसके ऊपर लगा डमरू हमें इस बात का सन्देश देता है कि भले ही त्रिशूल रूपी तापों से तुम ग्रस्त हों लेकिन, डमरू रूपी आनंद भी साथ होगा तो फिर नीरस जीवन भी उत्साह से भर जाएगा।...
बिना विष पीये, विषमता को पचाए कोई भी महान नहीं बनता

बिना विष पीये, विषमता को पचाए कोई भी महान नहीं बनता

आध्यात्मिक
 भगवद चिन्तन... श्रावण मास शिव तत्व देवाधिदेव भगवान आशुतोष के जीवन से इस श्रावण मास में पूजन करते-करते कुछ सीखने और समझने योग्य है। ये महादेव कैसे हुए? जो अमृत पीते हैं वो देव बनते हैं जो राष्ट्र, समाज और प्रकृति की रक्षा के लिए विष को भी प्रेम से पी जाएँ वो महादेव बन जाते हैं। बिना विष को पीये, विषमता को पचाए कोई भी महान नहीं बन सकता। आज के समय में अमृत की चाह तो सबको है, पर विष की नहीं। बिना विष को स्वीकारे कोई अमृत तक नहीं पहुँच सकता है। संघर्ष, दुःख, प्रतिकूल परिस्थिति, अभाव ये सब तुम्हें निखार रहे हैं। समस्या को स्वीकार करना ही समस्या का समाधान है। कोई भी समस्या तब तक ही है जब तक आप उससे डरते हो और उसका सामना करने से बचते हो। मनुष्य के संकल्प के सामने बड़ी से बड़ी चुनौती भी छोटी हो जाती है।...
श्रेष्ठता व स्वच्छता के साथ कर्म करना ही योग

श्रेष्ठता व स्वच्छता के साथ कर्म करना ही योग

आध्यात्मिक
भगवद चिन्तन योगस्थ: कुरुकर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय सिद्धय सिद्धयो:समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते! हमारे व्यावहारिक जीवन में योग का क्या साधन है अथवा व्यावहारिक जीवन में योग को कैसे जोड़ें? इसका श्रेष्ठ उत्तर केवल गीता के इन सूत्रों के अलावा कहीं और नहीं मिल सकता है। गुफा और कन्दराओं में बैठकर की जाने वाली साधना ही योग नहीं है। हम अपने जीवन में, अपने कर्मों को कितनी श्रेष्ठता के साथ करते हैं, कितनी स्वच्छता के साथ करते हैं बस यही तो योग है। गीता जी तो कहती हैं कि किसी वस्तु की प्राप्ति पर आपको अभिमान न हो और किसी के छूट जाने पर दुःख भी न हो। सफलता मिले तो भी नजर जमीन पर रहे और असफलता मिले तो पैरों के नीचे से जमीन काँपने न लग जाये। बस दोंनो परिस्थितियों में एक सा भाव ही तो योग है। यह समभाव ही तो योग है।...