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टीम ‘अंधाधुन’ की एक और दिलचस्प मर्डर मिस्ट्री, सितारों के आगे जहां वाकई और भी है..| |

टीम ‘अंधाधुन’ की एक और दिलचस्प मर्डर मिस्ट्री, सितारों के आगे जहां वाकई और भी है..| |

टीम ‘अंधाधुन’ की एक और दिलचस्प मर्डर मिस्ट्री, सितारों के आगे जहां वाकई और भी है..| |

टीम ‘अंधाधुन’ की एक और दिलचस्प मर्डर मिस्ट्री, सितारों के आगे जहां वाकई और भी है..| |

अचिंत ठक्कर का नाम सुना है? नहीं सुना, कोई बात नहीं। स्वप्निल सोनवणे और को तो जानते ही होंगे? अच्छा, योगेश चंदेकर को? उनको भी नहीं! अरे वही योगेश जिन्होंने आयुष्मान खुराना की लीग बदल देने वाली फिल्म ‘अंधाधुन’ लिखी। यही योगेश चंदेकर एक बार फिर अपने लैपटॉप पर थिरकती अंगुलियों से निकली एक करामाती कहानी लेकर आए हैं, ‘मोनिका ओ माय डार्लिंग’। पिछली बार कहानी के सूत्र एक फ्रांसीसी शॉर्ट फिल्म से निकले थे, इस बार मामला जापानी है। जितने नाम मैंने इस फिल्म समीक्षा की पहली तीन लाइनों में लिए, वे ही इस फिल्म के असली सितारे हैं। निर्देशन वासन बाला का है और सितारे तो खैर ढेर सारे हैं। फिल्म की कहानी योगेश ने ऐसी बुनी है कि इसके किरदारों में आप खो जाते हैं। फर्क नहीं पड़ता है किरदार स्त्री है या पुरुष। कलाकार नामचीन है या नया नया। सबका अपना अपना आकर्षण है। बिल्कुल सपेरे की बीन के सामने फन तानकर खड़े हो जाने वाले नाग जैसा।
ये एक जिंदगी काफी नहीं है
फिल्म ‘मोनिका ओ माय डार्लिंग’ को ‘अंधाधुन’ बनाने वालों ने बनाया है, यही इसकी सबसे बड़ी यूएसपी है। एक के बाद एक कत्ल होते हैं। कातिल कौन है? टाइप की मर्डर मिस्ट्री है। कहानी का एक सिरा वहां से शुरू होता है जहां एक बड़ी रोबोटिक कंपनी के मालिक की बेटी से प्रेम करने वाला छोटे से कस्बे इंगोला से निकला बंदा आईआईटी पास करके करोड़पति बनने के ख्वाब देख रहा है। किस्सा उसका दफ्तर की उस मादक, मोहक, मोनिका के साथ भी चल रहा है जिसका हर किस्सा कहानी का एक खतरनाक हिस्सा है। उसके मायाजाल से कोई बचा नहीं है। वह सबसे ‘हफ्ता’ वसूल रही है, अपने पेट में पल रहे बच्चे की परवरिश के नाम पर। तय होता है कि इसे निपटा दिया जाए। सब काम प्लानिंग के हिसाब से ही होता है। लेकिन, लाश ठिकाने लगाने के बाद उसके शिकार दफ्तर पहुंचते हैं तो मोनिका वहां नमूदार हो जाती है। तो मार किसे आए ये लोग? कहानी प्याज की परतों की तरह धीरे धीरे खुलती है। आखिर में हालांकि प्याज के जैसे ही हाथ कुछ आता नहीं है, लेकिन परतों को खोलने का भी तो अपना ही मजा है।
दिल है छोटा सा मगर…
निर्देशक वासन बाला मानते हैं कि फिल्म की कहानी में उनका ज्यादा कुछ योगदान है नहीं क्योंकि जब तक उनके पास फिल्म के निर्देशन की जिम्मेदारी आई तब तक योगेश काफी कुछ खाका खींच चुके थे। फिल्म का नाम ‘मोनिका ओ माय डार्लिंग’ है। नाम 1971 की सुपरहिट फिल्म ‘कारवां’ के गाने से लिया गया है। मजरूह सुल्तानपुरी के बोल और आर डी बर्मन के संगीत पर आशा भोसले की रिझाती आवाज का जादू अब भी कायम है। और, जादू ही है कि ठीक इसी गाने के नक्शे कदम फिल्म के संगीतकार अंचित कौर ने बना डाला गाना, ‘ये एक जिंदगी काफी नहीं है’। गजब का गाना है और यही नहीं इसके अलावा ‘लव यू सो मच आई वाना किल यू’ और फिल्म का सबसे गजब गाना है ‘दिल है छोटा सा मगर’..! अचिंत कौर के साथ ही ये गाने लिखने वाले वरुण ग्रोवर की कलम का टैलेंट भी अरसे बाद छींटें छोड़ने में कामयाब रहा है।
श्रीराम के ‘एकलव्य’
कहानी में हो न हो, फिल्म को बनाने में वासन बाला की छाप हर कोने में दिखती है। शुरुआत उनकी अनुराग कश्यप की शागिर्दी में हुई लेकिन असल ‘एकलव्य’ वह श्रीराम राघवन के दिखते हैं। श्रीराम के पसंदीदा शहर पुणे की पृष्ठभूमि है। कहानी मुंबई से लेकर आसपास के इलाकों में घूमती रहती है। गाने और कहानी का भूगोल मिलकर किरदारों का अतीत, वर्तमान और भविष्य खंगालते हैं और इस चरित्र मंथन में न तो पूरा विष निकलता है और न ही अमृत। यहां मामला बीच का है। कौन देव है और कौन दैत्य, पता नही चलता लिहाजा अमृत चखने के लिए किसी को भेष बदलकर कहीं बैठने की जरूरत ही नहीं है। हां, वासन बाला गच्चा यहां खा गए कि अमृत पीने से इंसान भले अमर हो जाता हो लेकिन सांप का जहर पीने से वह मरता नहीं है। ऐसे एक दो गच्चे और हैं फिल्म में लेकिन अगर वह कहते हैं कि यही तो सिनेमा है तो फिर आगे कुछ कहने सुनने को कुछ बचता नहीं है।
राउतरे और राघवन का रौला
फिल्म ‘मोनिका ओ माय डार्लिंग’ के दर्शनीय फिल्म होने का असल क्रेडिट दरअसल इसकी तकनीकी टीम को जाता है जिसके कप्तान इसके निर्माता संजय राउतरे और मार्गदर्शक श्रीराम राघवन हैं। स्वप्निल सोनवणे ने कैमरा शानदार संभाला है। अतानु मुखर्जी ने फिल्म का संपादन इतना चुस्त रखा है कि एक बार अगर आपने फिल्म शुरू कर दी तो इसे बीच में छोड़ पाना मुश्किल है। नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई इस साल की फिल्मों में हिंदी की ये नंबर वन फिल्म है और पता नहीं नेटफ्लिक्स इसे सिनेमाघरों में रिलीज करने की हिम्मत क्यों नहीं दिखा पाया? फिल्म की लागत तो इसके पहले वीकएंड में ही वसूल हो जानी थी। आप सोच रहे होंगे कि पूरी समीक्षा में मैंने कलाकारों के अभिनय की तो बात ही नहीं की। वह हिस्सा मैंने जानबूझकर छोड़ा है, क्योंकि उसमें गए तो फिर उनके किरदारों का ग्राफ बताना होगा और उसी में तो फिल्म का असली राज छुपा है, क्यों? सच है ना, मोनिका ओ माय डार्लिंग!

उत्तराँचल क्राईम न्यूज़ के लिए ब्यूरो रिपोर्ट |

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