Tuesday, July 1News That Matters

Tag: नीरज नैथानी

नीरज नैथानी… गांव में कोई भी ऐसा‌ न था जो इस उत्साह में शामिल न होता हो…

राष्ट्रीय
नीरज नैथानी रुड़की, उत्तराखंड- --------------------------------- पुराने जमाने मे पर्वतीय गांव में शादी पुराने जमाने मे पर्वतीय गांवों में शादी का निराला ही अंदाज होता था। किसी परिवार में शादी है तो पूरा गांव उसमें सहभागिता करता था। शादी का दिन‌ बार तय होते ही तैयारियां शुरु हो जाती थीं। आंगन में युवतियों व लड़कियों के छोटे-छोटे समूह बने अनेक प्रकार के काम कर रहे होते थे। सामूहिक रूप‌ से चौक के उरख्याले (ओखली) में गंजाळे (मूसल) से कुटाई हो रही है, हाथ से घुमाकर चलाने वाली पत्थर चक्की में दाल पिसाई हो रही है। सूप व छलनी से छनाई हो रही है, घर व आस-पास सफाई की जा रही है, घराट में जाकर आटा पिसाई हो रही है, लकड़ी काट कर इकठ्ठा की जा रही है। जंगल से माळू के पत्ते तोड़कर लाए जाते थे, फिर बरामदे में बैठकर पत्तल व दोने बनाए जाते थे। बाजार से रंगीन कागज मंगाकर लड़कों को दिया गया है वे ...

नीरज नैथानी… जब गालियां देते-देते दोनों पक्ष थक जाते तो अघोषित युद्ध विराम हो जाता

राष्ट्रीय
नीरज नैथानी रुड़की, उत्तराखंड -------------------------------------------- पर्वतीय गांवों में सुनहरी लड़ाई साथियों पिछली बार मैंने बताया था कि पहाड़ी खेतों में ओडु कई बार लड़ाई-झगड़े की जड़ हुआ करते थे। हांलाकि, ओडु के अलावा भी तमाम सारी वजहें थीं झगड़ो की। वैसे देखा जाय तो पहाड़ी व मैदानी गांव‌ के लड़ाई-झगड़ों में बुनियादी फर्क है। जहां मैदान के कतिपय गांवों में रुतबा व रुवाब जमाने के लिए या अपनी दबंगई स्थापित करने के लिए लाठी-गोलियां चल जाना आम बात है वहीं, अधिकाशंत: पहाड़ी गावों में केवल जुबानी लड़ाई से ही भड़ास निकाल लिये जाने का रिवाज है। जैसा कि आप जानते ही हैं कि पहाड़ी खेत आकार व क्षेत्रफल में बहुत छोटे होते हैं। इनमें खेती करना अत्यंत श्रम साध्य होता है। जितनी मेहनत की जाती है उस अनुपात में उत्पादन भी कतई नहीं होता है। ऊपर से तुर्रा ये कि पड़ोसी के डगंर उजाड़ खा जाएं त...

नीरज नैथानी… डूरंड लाइन व मैकमोहन लाइन की तरह ही है पहाड़ों में ओडु

राष्ट्रीय
नीरज नैथानी रुड़की, उत्तराखंड ------------------------------------ ओडु कई लोगों के लिए ओडु नया शब्द हो सकता है। जनाब, पहाड़ के खेतों में चिन्हांकन रूपी एक पत्थर होता है जो ओडु कहलाता है। यह एक ऐसा पत्थर होता है जो खेत या जमीन की सीमा रेखा बताता है। किसी खेत की मुण्डेर पर पत्थरों की एक सीधी लाइन होती है या संकेत मात्र के लिए एक ही पत्थर हो सकता है जो बताता है कि अमुक सीमा तक इस मालिक की जमीन है। आपसी सहमति से भूमि का बंटवारा कर लिया जाता है या जमीन किसी को बेची है तो ओडु बताता है कि इस सीमा तक अब जमीन तुम्हारी है। यूं समझ लीजिए जैसे कि डूरंड लाइन, मैक मोहन लाइन दो देशों की भौगोलिक सीमाओं का विभाजन करती हैं वैसे ही पहाड़ी खेतों में ओडु लाइन भाई बंदों का बंटवारा इंगित करती हैं। यह ओडु लाइन जमीन के साथ आदमियों को भी सीमा में रखती थी। भई तुम वहां तक हल चलाओ... वहां तक फसल बोओ.......

नीरज नैथानी….. कुशला फूफू के आ जाने का मतलब था जच्चा-बच्चा की खैरियत

राष्ट्रीय
नीरज नैथानी रुड़की, उत्तराखंड मेरे गांव में बीमारियों का इलाज साथियों पिछली बार मैंने आपको बताया कि जब हमारे गांव में सड़क नहीं पहुंची थी तो किसी बीमार को डाक्टर के पास दिखाने के लिए पिनस पर ले जाते थे। लेकिन, मैं जिक्र करना भूल गया कि डाक्टर के पास ले जाने की नौबत ही बहुत कम आती थी। अब आप इसका यह मतलब कतई न निकालिएगा कि हमारे गांव में कोई बीमार ही नहीं पड़ता था। गाहे-बगाहे मौसम का मिजाज बदलने पर या बदपरहेजी होने की वजह से लोगों की तवियत बिगड़ा ही करती थी। उस जमाने में गांव में न तो राजकीय प्राथमिक चिकित्सा केंद्र (पीएचसी), न  डाक्टर, न कम्पाउंडर और न ही कोई मेडिकल स्टोर हुआ करता था। लेकिन, हर बीमारी के इलाज के पारम्परिक तरीके जरूर हुआ करते थे। मसलन, किसी घर में बहू को प्रसव होना‌ है तो गांव की कुशला फूफू की सेवाएं ली जाती थीं। साठ-पैंसठ के आसपास की उम्र की कुशला फूफू पास...

नीरज नैथानी… उस जमाने में इमरजेंसी एम्बुलेंस होती थी ‘पिनस’

राष्ट्रीय
नीरज नैथानी रुड़की, उत्तराखंड मेरे गांव की पिनस अपने गांव के संदर्भ में, मैं आपके साथ एक पुरानी किंतु रोचक जानकारी साझा करना चाहता हूं। आज से तकरीबन चालीस पैंतालीस साल पहले हमारे गांव के ऊपर पिछड़े पहाड़ी इलाके का ठप्पा लगा हुआ था। वैसे अनेक संदर्भों में यह पिछड़ा था भी, जैसे कि गांव में बिजली नहीं थी, सड़क नहीं थी, यातायात के साधन नहीं थे, निकटतम बाजार जाने के लिए कई किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था। उच्च शिक्षा की सुविधा नहीं थी और सबसे बड़ी बात स्वास्थ्य सुविधाओं का नितांत अभाव था। ऐसे में यदि कोई गांव में बीमार पड़ गया, उसे किसी उपचार की आवश्यकता है, किसी अस्पताल ले जाना है, किसी डाक्टर को दिखाना है और वह पैदल चलने की स्थिति में बिल्कुल नहीं है तो फिर काम आती थी पिनस। हां, जी पिनस। यह पालकी जैसी लकड़ी की संरचना होती थी। जिसमें उपचार के लिए रोगी को आराम मुद्रा में अधलेटा कर...

नीरज नैथानी… मेरे गांव की गोठ

राष्ट्रीय
नीरज नैथानी रुड़की, उत्तराखंड ------------------------------------- मेरे गांव की गोठ पहाड़ी गांवों से जब इस कदर पलायन नहीं हुआ था तथा गांव, घर-परिवारों व पशुओं से भरपूर बने हुए थे, उस समय गोठ परम्परा प्रचलन में थी। जैसा हम जानते ही हैं कि पहाड़ी खेत आकार व क्षेत्रफल में छोटे होने के साथ ही सीढ़ीनुमा होते हैं। अत: इन खेतों में अच्छी फसल के लिए जैविक खाद पंहुचाना दुष्कर कार्य होता था। इस समस्या के निराकरण के लिए ही गांव में गोठ परम्परा स्थापित की गयी। गांव के तीन-चार परिवार मिल कर अपना समूह बना लेते थे। प्रात: उस समूह के एक दो सदस्यों के नियंत्रण में उनके समस्त पशु विशेषकर गाय, बैल, बछड़ा, बछिया बकरी आदि चराने के लिए जंगल ले जाए जाते। हांलाकि, वे निरंतर अभ्यास के कारण स्वत: ही चलते जाते व गौचर मैदान में अपनी इच्छा से चारा चरते तथा शाम होने पर स्वभाविक रूप से अपने आप ही लौटने भी ल...

चलो चले गांव की ओर…. दसवीं (समापन) किश्त… बोडी पर देवता अवतरित हो गया, उन्ने जोर से किलक्कताल मारी… आदेश…!

राष्ट्रीय
नीरज नैथानी रुड़की, उत्तराखंड चलो चले गांव की ओर...गतांक से आगे.. दसवीं (समापन) किश्त आज कथा का‌ समापन दिवस है। मंदिर परिसर में सुबह से ही हलचल हो रही है। पाठार्थी उच्च स्वर में जप कर रहे हैं। व्यास जी‌ गद्दी पर बैठे मौन वाचन करते हुए पुस्तक के पृष्ठ पलटते जा रहे हैं। आस-पास के गावों से श्रद्धालुओं का रेला उमड़ा आ रहा है। पाण्डाल भक्तों से खचाखच भर चुका‌ है। अंतत: जैसे ही व्यास जी ने पारायण की घोषणा करते हुए उद्घोष किया बोलिए आज के आनंद की... सामूहिक स्वर वातावरण में गूंज उठे.. जय। एक पाठार्थी ने माइक अपने सामने खिसकाते हुए उच्चारित किया.. धर्म की.. सभी एक साथ बोल उठे ... जय हो..., अधर्म का.. नाश हो.., प्राणियों में.. सद्भावना हो। हर-हर महादेव... हर-हर महादेव... फिर व्यास जी के द्वारा आरती करने का संकेत करते ही आरती प्रारम्भ‌ हो गयी। प्रांगण में बैठे समस्त लोग अपने स्थान ...

चलो चले गांव की ओर… नौवीं किश्त.. मैंने कह दिया, बोगट्या वोगट्या तो नहीं पर रोट कटेगा

राष्ट्रीय
नीरज नैथानी रुड़की, उत्तराखंड चलो चले गांव की ओर.... गतांक से आगे... नौवीं किश्त.. समापन से पूर्व की किश्त भैजी कल तेरे घर की महफिल में भी बौत मज्जा आया पर, सच बताना हमारे आने के बाद भाभी जी ने क्लास तो नहीं ली नरू काका ने डायरेक्टर बोडा को छेड़ा। अमा यार किसकी घरवाली बोलेगि कि दारू पिओ.. गुलछर्रे उड़ाओ.. पर मैंने पैलेई बोल दिया था कि भै बंध बैठेंगे शाम को हल्ला मत करना।तकरार की आवाज तो आ रही थी मैंने सुना, हम पे नाराज तो नहीं हो रही थीं नरू काका भी सच उगलवाने को आतुर हो रहा था। ना ना तुम्हारे लिए कुछ नहीं कह रही थी बोडा ने टालने की गरज से कहा। कुछ तो बोल ही रही थी भैजी, नरू काका भी नशे की पिनक में अड़ गया। यार वो अक्सर मेरे द्वारा दोस्तों को दी जाने वाली दावत को फालतू की दरियादिली का आरोप लगाकर ताने सुनाती रहती है कि सारी दुनिया के लिए सबकुछ लुटाते रहते हो पर मेरे लिए आज तक...

नीरज नैथानी… जल की गतिज ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में रूपांतरित करने का प्राचीनतम श्रेष्ठ उदाहरण ‘पहाड़ी घट्’

राष्ट्रीय
नीरज नैथानी रुड़की, उत्तराखंड --------------------------------------------- मेरे गांव का घट् ------------------------------------ मैं बात कर रहा हूं पहाड़ी घट् की, जिसे आप पनचक्की अर्थात पानी से चलने वाली चक्की कह सकते हैं। वैसे इन्हें घराट के नाम से भी पुकारते हैं। जब पहाड़ के गावों में बिजली नहीं पहुंची थी और न ही डीजल इंजन से भक्क भक्क की आवाज करती चक्कियां ही चलती थीं तो उस समय ये घट् पहाड़ी जीवन की आधार शिला हुआ करते थे। कुछ-कुछ गावों में आज भी इनके अवशेष मात्र देखे जा सकते हैं। जो घराट नदियों के किनारे स्थित होते थे वे बारामासी चलते थे लेकिन, जो गधेरों के किनारे बनाए जाते थे वे वर्षाकाल में प्रचुर मात्रा में पानी उपलब्ध होने पर ही चलते थे। गेहूं अनाज पीसने का एकमात्र साधन उस समय घट् ही होता था। लेकिन, यदि आप घट् का मूल्यांकन केवल पिसाई स्थली के रूप में करेंगे तो गच्...

चलो चले गांव की ओर… सातवीं किश्त… जंगल में आग लगाकर फारेस्टर, रेंजर से लेकर डीएफओ तक कूटते हैं चांदी

राष्ट्रीय
नीरज नैथानी रुड़की, उत्तराखंड चलो चले गांव की ओर... गतांक से आगे.. सातवीं किश्त शाम की आरती के बाद रोहतक से आए मन्ना काका ने खास खास लोगों को अपने यहां जिमा लिया। आज भी लगभग कल जैसा ही डायरेक्टर बोडा के कमरे सा सीन था। बस अंतर इतना था कि मन्ना काका के पुराने मकान में इतनी कुर्सियां नहीं थी कि सभी के ऊपर बैठने की व्यवस्था हो पाती सो बरामदे में चटाई दरी बिछाकर इंतजाम किया गया था। यूं भी मन्ना काका का पुश्तैनी मकान सालभर तो बंद ही रहता है बस, गर्मियों की छुट्टी में जब परिवार पूजा में शामिल होने आता है तो ही दरवाजे के कुण्डी खुलते हैं। इसलिए घर में केवल बहुत ही जरूरत की चीजें जमा कर रखी हैं बस काम चलाने भर के लिए। खैर दावत के लिए बीच में अखबार को दस्तरखान जैसा बिछाया गया। उसके ऊपर कांच के गिलास, पानी का जग,थाली में प्याज खीरे का सलाद, प्लेट में हरी चटनी वाला नमक व सेब संतरे क...