स्व. उमेश चन्द्र दुबे की एक रचना… पहला श्रोता
स्व. उमेश चन्द्र दुबे
मैनपुरी, उत्तर-प्रदेश
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पहला श्रोता
जिसके मुख पर आते जाते भावों में
मेरे छन्द बदल देने की क्षमता है
जिसके विविध विचार विवेचन की विधि में
मेरे मन मस्तिष्क सरीखी समता है
जिसकी सार भरी मुस्कानों के आँगन
मेरी लय पायल बाँधे छम छम नाचे
जिसकी मुक्त कंठ आशीष अभी जनमें
अनगाए गीतों का भाग्य-पटल बाँचे
पहली पहली बार उसी के ओठों से
कुछ पा लेने का आकर्षण होता है ।
जागरूक मन से सन्मुख बैठा
वह ही मेरा पहला पहला श्रोता है।
उसके सन्मुख नूतन भाव भावना को
सौ श्रृंगार किए सन्तोष नहीं होता
उसके आगे क्वाँरी शब्दावलियों को
वस्त्रहीन होने में दोष नहीं लगता
वह कह दे तो उठती हुई गुनगुनाहट
शब्दों की दुनिया को बेपरदा कर दे
वह चाहे भावुक अन्तर की आकुलता
पंक्तिबद्ध हो सरगम से सौदा कर ले ।
उसके तनिक उदास विमुख मन का चेहरा
भूले बिसरे उन गीतों को रोता है
जिनकी चिर अनुभूति लिए छलका-छलका
मेरे सन्मुख बैठा मेरा श्रोता है।
जागरूक मन से सन्मुख बैठा
वह ही मेरा पहला पहला श्रोता है।
स्वर आमंत्रण के आगे जिसको जग का
हर आकर्षण फीका-फीका लगता है
उस जैसी अनबुझी तृप्ति की अंजलि में
ज्ञान कमण्डल रीता-रीता लगता है।
कंठ सुशोभित शब्द सुमन की माला को
गूँथ नहीं पाता इतनी मजबूरी है
कवि से पहले जागरूक श्रोता बनना
तनिक कठिन है लेकिन बहुत ज़रूरी है।
मौन गा रहा हो एकान्त, नयन मूँदे
सुनता है चेतन में, कम्पन होता है
वह स्पन्दन भरे प्राण–मन मुग्ध मगन
मेरे सन्मुख बैठा मेरा श्रोता है।
जागरूक मन से सन्मुख बैठा
वह ही मेरा पहला पहला श्रोता है।