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प्रतिभा की कलम से… अरे, मैं हमेशा से थोड़ी न अंधी थी..

प्रतिभा की कलम से
देहरादून, उत्तराखंड
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मुक्ति
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गंगा की अंधी बुआ के गांव में एक घर के आगे बड़ा-सा खलिहान था। शाम के समय उसके सारे संगी-साथी वहां जमा होकर खेलते थे। खलिहान वाले घर की लड़की भी उन बच्चों में शामिल थी। नाम था गंगा। गंगा उम्र में सब बच्चों से बड़ी थी। रिश्ते में वह किसी की बुआ लगती थी तो किसी की दीदी। लेकिन, खेल में सारे बच्चे उसे गंगा कहकर ही बुलाते थे।

गंगा के घर में बहुत सारे लोग थे। उनमें बस एक ही ऐसी थी जो नन्ही के दिल में हर वक्त बैठी रहती-गंगा की अंधी बुआ। ज्यादा वृद्ध तो न थीं, लेकिन आंगन के एक कोने में लाचार सी बैठी रहने के कारण वृद्धा ही नजर आती। उस घर से आगे से गुजरने वाला लगभग हर व्यक्ति उन्हें आवाज देता हुआ जाता था। उनकी आवाज ज्यादातर औपचारिक ही हुआ करती थी, लेकिन बुआ आत्मीयता से प्रत्येक को जवाब देना नहीं भूलती थी। हालांकि, उनका दिन गुजरने वालों की आहटें सुनते और हालचाल बताने में बीत जाता, मगर किसी से भी इत्मीनान से बात करने को वह तरस ही गई थीं।

गंगा के परिवार से कोई उसे आवाज देता तो गंगा एक ही आवाज में भाग पड़ती। चाहे उस वक्त वह खेल में जीत ही क्यों न रही हो। बुआ की आवाज को वह प्रायः सुनकर भी अनसुनी कर देती। एक शाम बुआ गंगा की रट लगाए थी, मगर गंगा को खेल छोड़कर जाना गवारा न हुआ। उसकी जगह नन्ही उनके पास जाकर खड़ी हो गई। बुआ ने चौकन्नी हो कर इस नई आहट की तरफ गर्दन घुमा दी। बोली ‘-कौन?’ नन्ही अपना नाम बता कर चुप खड़ी रही। बुआ ने उसके सिर पर बड़े प्यार से हाथ फेर दिया।

उस दिन से नन्ही रोज शाम कुछ देर के लिए आंगन में बैठी बुआ के आगे जाकर खड़ी हो जाती थी। ज्योतिहीन आंखों में रात-दिन का कोई फर्क तो नहीं होता, लेकिन नन्हीं के आने से शाम का पता उन्हें जरूर चल जाता था। बोलते-बतियाते बुआ जान गई कि उनकी यह छोटी हमदर्द रामेश्वरी की पोती और सोहन भाई की छोटी बेटी है जिसका घर गांव में सबसे ऊपर था। नन्ही का हाथ पकड़कर जब वह पूछती कि सूरज डूब रहा है क्या तो नन्ही के यह पूछने के पहले कि आपको पता कैसे चला, बुआ खुद ही बता देती थी- ‘अरे, मैं हमेशा से थोड़ी न अंधी थी’। बुआ से पता चला कि कई बरस पहले जंगल में लकड़ी काटते समय एक ऊंचे पेड़ से गिरने के कारण उनके सिर पर लगी गहरी चोट ने उनकी आंखों की रोशनी छीन ली थी।

नन्ही अब बुआ की खाली और उदास दिनचर्या का ज़रूरी हिस्सा बन गई। हर शाम नन्ही से बात करते वह अपने चेहरे पर हाथ फिराकर अपनी उम्र का अंदाजा लगाना नहीं भूलती। एक जमाने से उन्हें अपने जीवित होने का बोध भी शायद जाता रहा था। घर के आंगन के कोने में मीठी नीम के छोटे-घने पेड़ के नीचे बिछी मैली, गंधाती, पुरानी दरी उनका स्थाई ठिकाना बन चुकी थी। हाथ पकड़कर उन्हें वहां तक पहुंचाने में घर के लोगों को उनके कारण होने वाले कष्टों का अहसास था। आंखें फूटीं तो कान जैसे और ज्यादा तेज हो गए उनके। बात-बात पर उनको कोसती घर के लोगों की फुसफुसाहट नश्तर की तरह उनके दिल में उतरती थी। उनकी काली आंखों में अब एक ही सपना बाकी रह गया था। जल्दी इस दुनिया से कूच कर जाने का सपना।

नन्हीं के आने के बाद बुआ को खुद अपनी जिंदगी में बदलाव महसूस होने लगा था। उनकी सोयी हुई कोमल भावनाएं करवट लेने लगी थीं। कभी उनके माथे पर उठा गूमड़ सहलाती नन्ही में उन्हें अपनी दिवंगत मां नजर आती थी। कभी जंगल में शेर, भालू से उनकी मुलाकात के किस्सों पर नन्ही उनसे लिपट जाती तो अविवाहिता बुजुर्ग बुआ को अपनी गोद भर जाने का एहसास अंतस तक भिंगो देता था। घर से खाने-पीने की कुछ चीजें लाकर बुआ के मुंह में जबरदस्ती डालती नन्ही और अपनी रूखी-सूखी दो रोटियों में से एक रोटी नन्हीं के लिए बचा कर रखने वाली बुआ हमउम्र सहेलियों-सी जान पड़तीं। इस तरह नन्हीं और बुआ के बीच एक अनोखा, अनकहा रिश्ता आकार लेने लगा था। कुछ महीनों बाद नन्हीं के दादा का पहला श्राद्ध पड़ा था। गांव के अनेक लोग न्यौते गए, मगर उनमें से जिस एक गंगा की बुआ को बुलाने की दादी की बड़ी इच्छा थी, उनको बुलाकर लाने के लिए नन्ही का कोई भाई-बहन तैयार नही हुआ। नन्हीं ने कहा- ‘मैं जाऊंगी दादी। मैं लेकर आऊंगी उन्हें।’

नन्ही छोटी थी। गांव में सबसे ऊपर स्थित उनके घर तक के पथरीले रास्ते पर नेत्रहीन वृद्धा को नन्ही ला पाएगी, इसमें दादी को शक था। फिर भी नन्ही भाग कर गई। जमाने बाद पहली बार अपने आसन से हिलने का मौका मिला था बुआ को। घरवालों को बताए बिना ही वह जिस हाल में थी उसी हाल में नन्ही के साथ चल दी। बताने का कोई अर्थ भी तो नहीं था। नन्ही की छोटी हथेली पकड़कर वह उबड़-खाबड़ रास्ते पर धीरे-धीरे डग भरने लगीं। नन्ही तो रोज ही उस रास्ते से गुजरती थी। बुआ भी कभी-न-कभी उससे गुजरी ही होंगी। लेकिन, यह दौर और था। अपनी थकी देह से नन्ही की कोमल हथेली के सहारे नन्ही के घर तक पहुंचने में उन्हें लंबा वक्त लगा।

कई प्रकार की मौसमी सब्जियां, पहाड़ी ककड़ी का रायता, खीर, पूरी, दाल और मीठे चावल का स्वादिष्ट भोजन और अंत में ब्रह्म भोज की दक्षिणा। नन्ही की दादी ने गंगा की बुआ के स्नेह-सम्मान में कोई कमी न रखी। कुछ घंटे के विश्राम और शाम की चाय के बाद बुआ को उनके घर पहुंचाने की जिम्मेदारी फिर नन्ही पर आन पड़ी। नन्ही ने फिर खुशी-खुशी उनका हाथ थामा। दोबारा उस रास्ते पर लौकी, तुरई, ककड़ी, कद्दू के सफेद, पीले, नारंगी फूलों को देखते-गिनते उस छोटा-से सफर ने गंगा की बुआ के खुरदरे हाथों पर सदा के लिए नन्ही की मुलायम हथेलियों का स्पर्श टांक दिया।

उसके बाद नन्हीं के पिता का स्थानांतरण गांव से दूर किसी शहर में हो गया था। नये स्कूल में दाखिले के साथ नन्ही का पुराना नाम भी जैसे गांव में ही छूट गया। अब वह नमिता थी। गांव में अरसे तक दोबारा जाना नहीं हुआ। पढ़ाई पूरी करने के बाद नन्हीं की शादी भी हुई। उसकी शादी में आए गांव के लोग भी उसे नमिता नाम से ही पुकार रहे थे। उसे बेसाख़्ता याद आई गंगा की बुआ। शादी में वह शामिल होतीं तो उसे नन्ही कहने वाला कोई मिल जाता। विवाह के लगभग दो साल बाद नमिता को गांव से चचेरी बहन की शादी का निमंत्रण आया। नमिता गर्भवती थी। डॉक्टर के इतना लंबा सफर के लिए मना करने के बावजूद नमिता पति को मनाकर गांव के लिए निकल पड़ी। पति को गंगा की बुआ के बारे में बताते हुए नमिता ने कहा- ‘आप उनसे जरूर मिलना और अपनी तरफ से उनके हाथ में कुछ रुपए-पैसे भी रख देना।’

विवाह समारोह के बाद वापसी में वे दोनों गंगा की बुआ से मिलने गए। बहुत बूढ़ी हो चुकी थी। याददाश्त भी जाने लगी थी। मिलकर उन्हें नन्हीं की याद दिलाई। बुआ के बहुत मना करने के बाद भी कुछ पैसे उनके हाथ में रख दिये। बुआ का मन हुआ कि उन पैसों से बहुत सारी चीजें खरीदवा कर वे नन्हीं के लिए भिजवा दें। बरसों पहले उनके जीवन से चली गई नन्हीं को अपने सामने पाकर भी उन्हें भरोसा नहीं हो रहा था शायद। बार-बार एक ही बात पूछती थी- ‘नन्ही कैसी है? मुझे याद करती है कि नहीं?’ उसके पति द्वारा नन्ही के नमिता हो जाने की बात बताने पर भी बुआ को यकीन नहीं आया कि उनकी छोटी नन्ही कभी नमिता भी बन सकती है। बढ़ती उम्र का असर था। उन्होंने बहुत सारी दुआएं भेजीं नन्ही के लिए। नमिता को खुशी थी कि बुआ अभी जीवित हैं और उसे बहुत याद करती हैं।

कुछ बरस बाद नमिता को पता चला कि छोटे-से घर में नारायण बलि न करवानी पड़ जाए, इस भय से बुआ के आखिरी समय में घरवाले उन्हें आंगन से हटाकर गांव के एक खंडहर में अकेली छोड़ आए थे। हड्डियों के दर्द से रोती-कलपती बुआ अपने सिर के बाल नोच-नोच कर मरीं।

हर बरस आश्विन माह में पड़ने वाले श्राद्ध पक्ष के लौकी, तुरई, कद्दू के रंग बिरंगी फूलों वाले मौसम में नमिता को गंगा की बुआ की याद आती है। तब भी जब पत्तलों में खीर, पूरी, सब्जी, रायता,कचौड़ी और मीठे चावलों का भोग पितरों के लिए रखा जाता है। एक बार वह बेमौसम तब याद आई जब नमिता हॉस्पिटल में भर्ती थी। उसके गर्भाशय के ट्यूमर का ऑपरेशन होने वाला था। शल्य चिकित्सा के बाद शरीर की हालत उस नवजात शिशु-सी हो जाती है जिसे छोटी-छोटी बातों के लिए भी दूसरों पर निर्भर होना पड़ता है। सब कुछ कितना कष्टप्रद ! तब उसे शिद्दत से बुआ की व्यथा का एहसास हुआ था।

तीन दिन बाद आज नमिता पहली बार खड़ी होने की कोशिश कर रही थी तो लुढ़क गई। फिर जैसे किन्हीं हाथों ने उसे संभाल कर खड़ी कर दिया। गंगा की बुआ के खुरदरे हाथों का स्पर्श अपनी देह पर उसने बहुत साफ-साफ महसूस किया। वह समझ गई कि इस दुनिया से जाने के बाद बुआ को दिखाई भी देने लगा है और वे अपनों को पहचानने भी लगी हैं।

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