प्रतिभा की कलम से… अरे, मैं हमेशा से थोड़ी न अंधी थी..
प्रतिभा की कलम से
देहरादून, उत्तराखंड
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मुक्ति
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गंगा की अंधी बुआ के गांव में एक घर के आगे बड़ा-सा खलिहान था। शाम के समय उसके सारे संगी-साथी वहां जमा होकर खेलते थे। खलिहान वाले घर की लड़की भी उन बच्चों में शामिल थी। नाम था गंगा। गंगा उम्र में सब बच्चों से बड़ी थी। रिश्ते में वह किसी की बुआ लगती थी तो किसी की दीदी। लेकिन, खेल में सारे बच्चे उसे गंगा कहकर ही बुलाते थे।
गंगा के घर में बहुत सारे लोग थे। उनमें बस एक ही ऐसी थी जो नन्ही के दिल में हर वक्त बैठी रहती-गंगा की अंधी बुआ। ज्यादा वृद्ध तो न थीं, लेकिन आंगन के एक कोने में लाचार सी बैठी रहने के कारण वृद्धा ही नजर आती। उस घर से आगे से गुजरने वाला लगभग हर व्यक्ति उन्हें आवाज देता हुआ जाता था। उनकी आवाज ज्यादातर औपचारिक ही हुआ करती थी, लेकिन बुआ आत्मीयता से प्रत्य...